मेरा सफ़र मुझसे,

मेरा सफ़र मुझसे मेरी मंज़िल का ठिकाना पुछने लगता है
धीरे धीरे मेरी ज़िंदगी के ख़ाली पन्नों पर एक नया अफसाना
लिखने लगता है, जानें कबसे रूठी हुई है मुझसे मेरी मंज़िल
अब इस उम्र में आकर कहां किसी को कुछ याद रहता है,
वो रुक जाता है चलते चलते राहों में और मौका मिलते ही बेवजह मुझसे बहस पड़ता है, जब दिखती नहीं मुझको मेरी मंज़िल तो ढलते हुए सूरज को दौड़कर पकड़ने लगता है, सफ़र मेरा मुझसे मेरी मंज़िल का ठिकाना पुछने लगता है,
देखते ही देखते मेरी उलझनों में उलझने लगता है...

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