ख़ामोश रहता हूं आईने,
ख़ामोश रहता हूं आईने में खुदको तराशने लगता हूं,
बैठा बैठा मैं अपने वजूद को पुकारने लगता हूं,
तकलीफ़ तो होती है जब टूटकर बिखर जाता हूं,
फिर मैं धीरे धीरे अपने आस्तित्व को समेटने लगता हूं,
रुकता ही नहीं समय का दरिया जब यादों की कश्ती में सफ़र करता हूं, रोकता हूं हर शख्स को और अपनी पहचान पूछने लगता हूं, देखकर मेरा साया भी मुझको बेइंतेहा खिलखिलाता है, भागता रहता हूं उजाले के पीछे पर हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है, बेसुध ठहरा रहता हूं मेरी आंख भर आती है देखते देखते मेरी एक और रात गुज़र जाती है....
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