अँधेरे में कहीं,

अँधेरे में कहीं वजूद मेरा 
मुझमें सिमटने लगता है, 

देखता हूं जहां तहां
मुझको सामने मेरे
अँधेरा खड़ा मिलता है, 

बैठा बैठा मैं अकेला
अँधेरे में उजाला तालाशने 
लगता हूं, 

मिलता नहीं जब मुझको तो
सवाल में खुद से हज़र पूछने 
लगता हूं, 

बातों ही बातों में बेवजह
मैं खुद से झगड़ने लगता हूं, 

देखते ही देखते वक्त का 
पहिया धीरे धीरे सरकने 
लगता है, 

बैठे बैठे अक्स मेरा 
मुझपार हंसने लगता है, 

मायूस होकर चिराग़ उम्मीद 
का मेरे बुझने लगता है, 

रात के साए में जब डर 
मुझे जकड़ने लगता है, 

रोते रोते वजूद मेरा टूटकर 
जब बाहों में मेरी बिखरने 
लगता है, 

खुश होता हूं जब धीरे धीरे 
वजूद मेरा मुझमें सिमटने 
लगता है....

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