मेरा वो रूप,
मेरा वो रूप मुझको रात
के आईने में नज़र आता है,
ख़ामोश रहता है दर्द चेहरे
पर उसके बेइंतेहा मुस्कुराता है,
मजबूर हूं मैं मुझे अपने इस रूप
को औरों से छुपाना पड़ता है,
ना चाह कर भी ठीक हूं मैं
ये सबको जताना पड़ता है,
मेरा वो रूप मेरे जख्मों को
अंदर ही अंदर कुरेदता है,
खून बनकर पानी आंखों
से मेरी बहने लगता है,
इस दुनियां में हर एक
अनजान शख़्स मुझको
कमज़ोर समझने लगता है,
गीद के जैसे आबरू को
मेरी नुकीली आंखों से नोंचने
लगता है,
आता जाता हर मुसाफ़िर
अपनी नज़रों को झुकाकर
गुजर जाता है,
जाते जाते अबला हूं मैं
कोई शक्ति नहीं ये याद
दिला जाता है,
जाने ऐसा कौनसा कर्ज़ है
जो मुझको इस क़दर चुकाना
पड़ता है,
लड़की हूं मैं कोई वस्तु नही
क्यूं मुझको ये इतिहास सभी
को शिक्षक की तरह पढ़ाना
पड़ता है,
वरदान में मिले इस कलंक
के साथ मुझे जीना पड़ता है,
समाज के कड़वे शब्दों का
ज़हर ख़ामोशी से पीना पड़ता है,
कभी कभी तो मैं अपनी
पहचान को अपने ही हाथों
से मिटाने लगती हूं,
जब्भी मेरा वो रूप रात के
आईने में बेवक्त उभर आता है।
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