सोचता हूं खुदको,

सोचता हूं खुदको
भूलने लगता हूं,

बातें करता हूं मैं
जब खुद से तो
अकड़ पड़ता हूं,

खड़ा करता हूं अक्स 
को आईने में और मैं
बहेसने लगता हूं,

मूंदकर आंखों को अपनी 
मैं अपनी परछाई के पीछे
भागने लगता हूं,

ढूंढता हूं खुदको
मैं जब अंधेरे में तो 
भटक जाता हूं,

मायूस होता हूं मैं
जब खाली हाथ घर
अपने लौट आता हूं,

मेरे घर की दीवारें भी
मुझसे कुछ बोलती है,

बैठा रहता हूं ख़ामोश
दर्मिया उनके जाने क्यूं
वो मुझमें मेरी खुशियों
को क्यूं टटोलती है,

ठहरा रहता हूं मैं 
मेरे पैरों के नीचे से 
जमीं खिसकने लगती है,

वजूद मेरा मुझको
अंदर ही अंदर
खरोचने लगता है,

बेवजह में खुदसे 
आधी रात को उठकर
झगड़ने लगता हूं,

देखता हूं जिधर
भी अंधेरा ही अंधेरा
नज़र आता है,

देखकर मुझको
अंधेरा मन ही मन
अपने मुस्कुराता है,

नींद में चूर आंखें 
मेरी जागने लगती है,

रात मेरी करवट्टे 
बदलने लगती है, 

धीरे धीरे सवेरा
उगने लगता है,

सोचता हूं खुदको
भूलने लगता हूं....

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