सुरमई शाम के साए में,

सुरमई शाम के साए में 
क्यूं मुझे ये आसमां सारा 
बदला बदला सा लगता है, 

मधम मधम सतरंगी रोशनी से 
अपनी क्यूं सूरज पर्वतों का श्रृंगार 
करने लगता है, 

पलकें भूल जाती है झपकना 
खुदको जब उनको दृश्य ये मन 
मोहक सा दिखता है, 

रहता है मुझको भी इंतज़ार 
अपने कुछ सवालों का आखिर,

सुरमई शाम के साए में 
सबको उजाला देने वाला सूरज 
मुझे जाने क्यूं अधूरा अधूरा सा 
मिलता है....

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