नज़र लग गई है,
नज़र लग गई है,
क़लम को हमारे अब मेरे सारे शब्द मिलकर
जिह्वा पर मेरी रात दिन घात किया करते है,
पाकर मुझको अकेला अक्सर मेरे शब्द मुझसे
अपने जज़्बात-ए-दिल को बयां किया करते हैं,
ज़रा सा लड़खड़ाने लगी है क़लम मेरी अब तो
कागज़ भी ख़ुदको कोरा पाकर आईने में क़लम
का लिखा सौ बार पढ़ते हैं, ख़ामोश होकर सहम
जाती है क़लम मेरी जब मेरे शब्द क़लम को मेरी
बदनाम किया करते है, जब भी नज़र लगती है
क़लम को हमारी तो हम मन में विश्वास का दीया
जलाकर उसकी नज़र उतार दिया करते है।
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