कभी कभी मन मेरा....

कभी-कभी मन मेरा विचलित हो जाता है,
जब मैं कुछ दृश्य ऐसे देखता हूं ज़िंदगी में अपनी,
जैसे जल का व्यर्थ में बहना जबकि जल को जीवन कहते है, खाने का अनादर करते देखकर लोगो को और उससे कचरे में फेंकते हुए, जबकि दुनियां के कई लोग खाली पेट लिए सोते हैं हर रात एक सपना संजोए के आज नही तो कल उनको खाली पेट नही सोना पड़ेगा, दिखावा पैसे का करते हुए उससे अपने शौक पूरे करने में, जबकि आधे से ज्यादा लोग इससे वंचित हैं, और उससे अर्जन करने के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं, इंसानियत को शर्मशार होते हुए देखता हूं तो मेरी अंतर आत्मा भी कर्रहा जाती है, खुले विचारों का होना कोई गलत बात नही आज के समय में पर संस्कारों का तिलस्कार होते हुए देखता हूं, तहज़ीब तो मैं समाज में छोटे परिवारों में देखता हूं, लाखो में एक व्यक्ति ऐसा होता है जो मांगता नही कुछ भी पर आदर सत्कार का भूखा होता है, देखता हूं जब समाज में स्त्री को अपमानित, कलंकित और उनसे दुर्व्यवहार होता हुआ वहां जहां पूजा जाता है स्त्री को देवी के रूप में तो मन मेरा विचलित हो जाता है, तड़पता देखता हूं जब किसी बेजुबान को दर्द से मेरी आंखे नम हो जाती है और, मुझसे सवाल करता है मन मेरा, सोचने और लिखने पर मजबूर कर देता मुझको चिंतन मेरा।मन मेरा विचलित होता जाता है जब देखता हूं हर सुबह एक दृश्य नया.....

Comments

Popular posts from this blog

Life without friends is like

I'm one step away,

If I were a river....